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राम मोहम्मद सिंह आज़ाद को हार्दिक भावभीनी श्रृध्दान्जली।
आपको पढ़कर अचरज हो रहा होगा, यह भला कैसा नाम है? वह हिंदू थे या मुसलमान? मैं उसकी चर्चा क्यों कर रहा हूं? कौन था यह शख्स? बताता चलूं।
उन्होंने पंजाब के एक साधारण परिवार में आंखें खोलीं। दुनिया को ठीक से देखते-समझते, तब तक मां-बाप चल बसे और चेतना ग्रहण करने की शुरुआत अनाथालय में हुई। उन दिनों देश पराधीनता की बेड़ीयों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेज साहब बहादुर और उनके कारिंदे, दोनों हाथों से सोने की चिड़िया के पर नोचने में जुटे थे। जिस किशोर को समुचित पढ़ाई उपलब्ध न हो पा रही हो और निजी जिंदगी में मां-बाप की वत्सलता से कभी पाला न पड़ा हो, उसकी चेतना कितनी जागृत थी?
वह भारत की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार कापुरुषता, सांप्रदायिकता और सामाजिक बिखराव को रोज़-ब-रोज़ पढ़ते गए, गुनते गए। इसीलिए भारतीय श्रमिक संघ और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में काम करते हुए उन्होंने अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आज़ाद रख लिया।
आज राम मोहम्मद सिंह आज़ाद की 76वीं पुण्यतिथि है। 31 जुलाई, 1940 को बरतानिया की पेंटनविले जेल में उन्हें फांसी दे दी गई थी। उम्र- 40 साल। आरोप- हत्या, राष्ट्रद्रोह आदि- सर्वाधिक संगीन मामलों में सज़ा-ए-मौत दी गई हो उसी अमर शहीद उधम सिंह का ज़िक्र कर रहा हूं।
13 अप्रैल, 1919 को जनरल रेजिनॉल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने जब जलियांवाला बाग में सैकड़ों हिन्दुस्तानियों के खून से होली खेली, तब उन्होंने बाग़ की मिट्टी को हाथ में उठाकर प्रतिशोध लेने का प्रण किया। उसी क्षण से उधम सिंह के जीवन ने नया आकार लेना शुरू कर दिया।
ज़रा सोचिए, एक अनाथ नौजवान, जिसके पल्ले में कुछ न हो, वह यूरोपीय और अफ्रीकी देशों से होता हुआ लंदन पहुंचता है। वहां मकान किराये पर लेता है। एक कार खरीदता है और साथ ही रिवॉल्वर भी। वह अपनी योजनाओं को अमली जामा पहना पाते, इससे पहले जनरल डायर अपनी मौत मर गया, पर हत्याकांड का हुक्मनामा जारी करने वाला उसका बॉस यानी लेफ्टिनेंट गर्वनर सर माइकल ओडवायर ज़िंदा था। उधम सिंह ने उसके वध का फैसला किया।
एक दिन उन्हें मालूम पड़ा कि ओडवायर रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की सभा में भाग लेने के लिए लंदन के कैक्सटन हॉल में आने वाला है। उन्होंने एक मोटी किताब को बीच में से इस तरह काटा कि उसमें रिवॉल्वर समा सके। अगले कुछ घंटे उनका मनोरथ साधने वाले साबित हुए। पर यह सच है कि इस कांड के बाद वह जीते जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सितारे बन गए।
75 साल से ज्यादा बीत गए, पर हर भली बात को भुला देने के अभ्यस्त भारतीय उन्हें अब तक इज़्ज़त से याद करते हैं। सामाजिक सद्भाव, समानता और स्वतंत्रता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। क्यों?
बताता हूं। उधम सिंह के प्रशंसक कहते हैं कि उन्होंने खुद को इसलिए गिरफ्तार करवा दिया था, ताकि उनका संदेश पूरी दुनिया तक पहुंच सके। ऐसा करते वक्त यक़ीनन उन्हें मालूम था कि अंग्रेज सूली पर चढ़ा देंगे। हो सकता है कि उनके प्रशंसक इस मामले में अतिरेक करते हों, पर यह सच है कि उसी कालखंड में भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली में इस नीयत से बम फेंका था, ताकि बहरे भी सुन सकें।
वे इसका अंजाम जानते थे। उस जमाने के नौजवान इंसानियत को बनाए रखने के लिए मर रहे थे, मार रहे थे। उधम सिंह और उन जैसे नौजवानों के लिए ये अल्फाज़ किसी आराधना से कम नहीं होते थे।
आज इसका उल्टा हो रहा है।अफसोस और चिंता की बात है कि इन की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही दुनिया में हर रोज़ दर्जनों लोग किसी न किसी तरह की नफरत की आग में झुलसकर दम तोड़ देते हैं।
हम कैसे मनहूस वक्त में सांस ले रहे हैं? हमारी सुबहें आशंका और रातें हताशा लेकर आती हैं। धरती पर मनोरोगियों की बढ़ती संख्या की एक वजह यह भी है।कोढ़ में खाज यह कि राजनेता इन नफरतों को अपनी स्वार्थपूर्ति का जरिया बनाने में जुटे हैं।
संसार के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप सिर्फ आग उगलने वाले भाषणों की वजह से ही अब तक अपने अन्य स्पर्धियों पर भारी साबित हुए हैं।
जब सत्तानायक प्रेम की जगह नफरत का सहारा लेने लगें, तो दुनिया के नौजवान रास्ते से भटकेंगे ही।
खुद हमारे देश में तमाम सियासी हस्तियां और तथाकथित धार्मिक नुमाइंदे विद्वेष फैलाने वाली बातें करते रहते हैं। याद रखिये, इस देश के तिरंगे रंग के झंडे को एक रंगा करने का प्रयत्न करने वाला हर संगठन और हर व्यक्ति राष्ट्र द्रोही है। दो सम्प्रदायों, दो धर्मों में नफ़रत फैलाकर सत्ता हासिल करने की कोशिश करने वाले हमारे अज़ीम मुल्क के दुश्मन हैं। सच्चे हिन्दुस्तानियों को देश और समाज हित में इनके विरुध्द सीना तान करा खड़ा होना ही होगा।
सत्ता के मद् में चूर इन छद्म राष्ट्रवादियों और छद्म हिन्दुत्वादियों को कौन समझाये कि जब इनके आक़ाओं ने अपने संगठन को सांस्कृतिक संगठन बता कर आज़ादी की जंग से पल्ला झाड़ लिया था और अंग्रेज़ों की चाटुकारिता कर रहे थे । तब देश की आज़ादी के संघर्ष में हर क़ौम का सक्रिय योगदान था। उनके आज के सिरफिरे अनुयायी, कभी गौ-मांस रखने के शक में हत्या, कभी इसे लाने के शक में महिलाओं और मरी गायो की खाल उतारने वाले दलितों की पुलिस की मौजूदगी में सरे आम पिटाई। क्या साबित करना चाहते हैं, यह छदम राष्ट्रवादी और छदम हिन्दुत्ववादी रणबाँकुरे?
सवाल उठता है कि क्या 21वीं शताब्दी का यही संदेश है?
नहीं, मैं उधम सिंह, भगत सिंह, अशफाकुल्लाह जैसे शहीदों को आदरपूर्वक याद करते हुए कहना चाहूंगा कि उम्मीद बनाए रखिए, अंधेरा कितना भी घना क्यों न हो, पर वह उजाले को बेदखल नहीं कर सकता। नफरतों के अँधेरे दौर में उम्मीद के साथ मोहब्बत की शमा जलाए रखिये।
जीत – सर्व धर्म –समभाव, गंगा जमुनी तहजीब और धर्म निरपेक्षता की ही होगी।
यही राम मोहम्मद सिंह आजाद (अमर शहीद उधम सिंह) को हार्दिक भावभीनी श्रृध्दान्जली है।
सैयद शहनशाह हैदर आब्दी
समाजवादी चिन्तक –झांसी ।
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